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          धुंध की चादर

धुंध की चादर शरद फैला गया है
आँख के आगे कुहासा छा गया है

खेत खलिहानों फसल पर प्रात आकर
मोतियों-से ओस-कण बिखरा गया है

अंक में अपने मिहिर को वह छुपा कर
रोशनी को आज फिर तरसा गया है

एक पल में सब किया नज़रों से ओझल
खेल जादूगर हमें दिखला गया है

ओढ़ कर कुहरे की चादर एक झीनी
इस धरा पर आसमां अब आ गया है

ताज़गी हर साँस में कुहरे की दे कर
फिर नयी इक ज़िन्दगी सरसा गया है

भर हवा में ठंड मौसम सर्द 'कुंतल'
वो शिशिर को आज सब समझा गया है

- कुंतल श्रीवास्तव

१ दिसंबर २०२१
     

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