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आ जाओ कोदण्ड धारकर

 
हे राम!
मर्यादा के टूट रहे हों जब सारे तटबंध
कहो राम फिर कैसे होगा
जीवन से अनुबंध

धरा प्रकम्पित सूरज चिंतित मनुज दम्भ में चूर
शर्मिंदा है आज दशानन अंत नहीं है दूर
जीर्ण-शीर्ण से प्रतिबिम्बित हैं
भावों के कटिबंध

लक्ष्मण रेखा लाँघ रहे सब पल पल अपहृत सीता
लगी मनुजता आज दाँव पर पड़ा स्नेह घट रीता
झूठ कपट चढ़े माथ, सत्य पर
सौ सौ हैं प्रतिबन्ध

मृत्यु सहज़ है जीवन दुष्कर उलझे पृष्ठ तमाम
कृपा दृष्टि हो अगर आपकी बने विश्व अभिराम
खिले पुष्प हर उपवन में फिर
लेकर नयी सुगंध

करें प्रतीक्षा होकर आतुर मन है बड़ा अधीर
आ जाओ कोदण्ड धारकर हे दशरथ के वीर
एक आप हो जिनसे अपना
युग युग से सम्बन्ध

- श्रीधर आचार्य "शील"
१ अक्टूबर २०२५

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