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      उठो राम! कोदंड उठाओ

 
पराकाष्ठा हुई पाप की
पूर्ण हो चुकी अवधि शाप की
शत्रु स्वयं चुन रहा काल को
फिर क्यों उपज रहा संशय है?
उठो राम! कोदंड उठाओ!
चिंतन का अब नहीं समय है

सोते हुए सिंह को दुश्मन
जब कायर कह कर ललकारे
न्याय- धर्म के संधि पत्र को
भरी सभा में हँस-हँस फाड़े
तब फिर कैसा धैर्य दिखाना
मीच मुट्ठियों को रह जाना
रघुनंदन अब चाप चढ़ाओ
प्रीति नहीं होती, बिनु भय है

हाथ बाँध कर वानर सेना
बैठी कबसे सिंधु किनारे
वेश भयंकर धरे निशाचर
अट्टहास कर ताली मारे
हुए अधीर तीर तरकश के
क्षण आयेगे कब वो यश के
होगा जब इस काल रात्रि से
नयी भोर का सूर्योदय है

छाँव तले बैठी अशोक के
शोक निमग्न उदासी सीता
बाँट जोहते दृग दीपों की
बाती रोज बढ़ाती सीता
इसके पूर्व के प्रण खण्डित हो
झूठ यहाँ महिमा-मंण्डित हो
हे राघव! जग को दिखलाओ
होती सदा सत्य की जय है

- मधु शुक्ला
१ अक्टूबर २०२५

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