हँसता हूँ मगर उल्लास नहीं
हँसता हूँ मगर उल्लास नहीं रोने पे मुझे विश्वास नहीं
इस मूरख मन को जाने क्यों ये जी बहलावे रास नहीं
अश्रु का खिलौना टूट गया मुस्कान की गुड़िया रूठ गई
इस चंचल बालक–मन को मगर लुट जाने का अहसास नहीं
सब बात बिगड़ने बनने की एक आस निरास का चक्कर है
जो बिगड़ गई वो बात नहीं जो टूट गई वो आस नहीं
क्या भीगा भीगा मौसम था क्या रुत है फिकी फिकी सी
हम पहरों रोया करते थे अब एक भी आंसू पास नहीं
हिम्मत तो करो पूछो तो सही इस बगिया के रखवालों से
क्यों रंग नहीं है फूलों पे क्यों कलियों में बू बास नहीं
वो आ जाएं या घर बैठें कुछ इसमें ऐसा फ़र्क नहीं
ये मिलना जुलना रस्में हैं दिल इन रस्मों का दास नहीं
जब सारा जीवन बीत गया तब जीने का ढब आया है
वो जाएं तो कोई शोक नहीं वो आए तो उल्लास नहीं
इस बैरन बिरहा ने मेरा ये हाल बनाया है राहत
वो कबसे सामने बैठे है और आंखों पर विश्वास नहीं
—ओमकृष्ण राहत
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