दीपावली है,
दीप जलाओ
घर को कोने से आँगन तक
साफ़ करो -सुथरा कर दो
क्यों?
क्योंकि आज आएगी लक्ष्मी
दीप मालिका ज्योतिर्मयी सखियों को लेकर
झनझन-झनझन झनन-झनन
खनखन-खनखन खनन-खनन
मदमाती-सी
मुस्काती-सी
लजीली-सी आँखों से
मन में कुछ-कुछ सकुचाती-सी
कुछ कहती-सी
कुछ हँसती-सी
मटक-मटक कर
ठिटक-ठिटक कर
चुन लेगी वह अपनी प्रिय को।
दीपक नहीं जलाऊँगा मैं
घर को नहीं बुहारूँगा मैं
क्यों?
क्योंकि जल रहा मेरा दिल है
साफ-सुथरा और निर्मल मन है
आएगी तो आ जाएगी
मुझे किसी की चाह नहीं है।
यों जलने को दीप हज़ारों
उस कोठी में जल ही रहे हैं
और सेठ जी तोंद फुलाए
हाथ जोड़कर खड़े हुए हैं
स्वागत करने की जल्दी में
अभिषेक घड़ी की तैयारी में
खड़े हुए हैं पड़े हुए हैं
थाली में तो दीप जलाए
दमक दामिनी
कनक कामिनी
लक्ष्मी रानी चली आ रही।
मैं कहता हूँ दीप मालिके!
सुन लेना तू कान खोल के
इधर नहीं तू कदम बढ़ाना
और जहाँ चाहे तू जाना
स्वार्थ, दंभ, अभिमान
अत्याचारों की खान
रक्त चूसकर दीन-दुखी का
दिल तोड़ा है तूने लाखों प्रेमी का
नहीं समझते तेरी कीमत को जो अच्छा
मुझे घृणा है तेरी वृत्ति से।
मैं संतोषी
सरल सफलता
सफल सरलता
सादगी और सदाचार का अनुयायी हूँ
तेरे इन करोड़पतियों से
लाख गुना भी आज साफ हूँ
पर चाहे जिसको तू चुनना
आज स्वयंवर ही जो ठहरा
मेरे पास चली मत आना
मैं तुझको नहीं अपना सकता।
-एम सी कटरपंच
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