रीति रिवाज़ों के एक साल ने
फिर करवट बदली है
जाऊँ बाज़ार से
कुछ दीए ख़रीद लाऊँ
ढूँढू कहाँ पड़ीं हैं
पिछले साल की बची फुलझड़ियाँ
याद है मुझे बचपन की दिवाली
जब अनार जलाते ही
रोशनी के फ़व्वारे
मन में फूट पड़ते थे
तब हम सचमुच बच्चे थे।
गुज़रा वक्त
जलती चकरी की तरह
जब उल्टा घूमता है
तो यादों का धुआँ
हवा में फैल जाता है
अतीत में गूँजता है एक धमाका
कहीं किसी ने फूँकी थी चिंगारी
और आग आज तक नहीं बुझी।
सोचता हूँ
दरवाज़े पे सजाऊँगा रंगोली
और किस्मत की तरह रंग बदलती
जलती बुझती बत्तियाँ
अंधेरे में रोशनी के लिए
पोछूँगा धूल
पुराने रिश्तों पर से
और भेजूँगा कुछ कार्ड
बिना खत के।
बहुत दिन बीत गए
दिवाली मनाते
बहुत दिन बाद
फिर आई है दिवाली।
-शलभ श्रीवास्तव
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