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अमावस भी हो, पूर्णिमा सी उजाली,
मनाएँगे हम, इस तरह से दिवाली।
जलाएँगे हम, इस बरस दीप ऐसे,
कि हों भावना के, सहज रूप जैसे।
बनाकर के सद्वृत्ति की, आज थाली,
उसी में भरें भावना प्यार वाली।
मनाएँगे हम, इस तरह से दिवाली।
संजोकर के सौहार्द के शुद्ध घृत को,
उसी में भिगोएँगे नव वर्तिका को।
किरण प्रस्फुटित करके वो ज्ञान वाली,
मिटा देंगे हम, ये निशा द्वेष वाली।
मनाएँगे हम, इस तरह से दिवाली।
जला करके हम, नफ़रतों को दिये में,
जगा देंगे, सदभ़ावना हर हिये में।
बिखर जायेगी, रोशनी वो निराली,
न आ पाएगी फिर, निशा द्वेष वाली।
नहीं पूर्ण जग से मगर कुछ घरों से,
नहीं पूर्ण जीवों से, पर कुछ दिलों से।
मिटा देंगे हर, भावना भेद वाली,
गले इस तरह से, मिलेंगे दिवाली।
न विस्फोट होंगे कहीं पर बमों के,
न दंगे ही होंगे, कही मज़हबों के।
न होगा कहीं पर, कोई पेट खाली,
बँटेगा वो उपहार, भर भर के थाली।
फिजा में फैल जाएगी, यह ज्योति ऐसे,
गगन में उगे हों, कई चाँद जैसे।
बिखेरेगी वो, चाँदनी शांति वाली,
उसी में मनाएँगे हम सब दीवाली।
-शशिकला मिश्रा
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