अंधकार में दीप अनेकों
मन मंदिर में दीप जलाना
कितने आहत बेजुबान हैं
कुछ दिन के तो मेहमान हैं
आशाओं के अंशुमान तुम
निर्बल की लकुटी बन जाना।
कितने बेघर, टूटे मचान है
बहुतों के कच्चे मकान हैं
अपने लिए बहुत बनवाया
उनके लिए कुटी बनवाना।
तीक्ष्ण वेग दूर दृष्टि हो
एक मिशन एक सृष्टि हो
कमर कसो लेकर मशाल तुम
जो सोये हैं उन्हें जगाना।
यह कैसी उजयारी होगी
भूखे पेट न ताली होगी
दीप जलें दीवाली होगी
भूखों के तुम व्रत तुड़वाना।
एक नाम तुम, एक राम हो
सीता तुम नयनाभिराम हो
पग-पग पर जब रावण आएँ
घास फूस सा उन्हें जलाना
राम राज्य आया ही समझो
मिशन, दृष्टि कर्मठता होगी
मन में सृजन पिपासा होगी
बन कर दीप स्वयं जल जाना।
सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
|