कुछ न हो तो एक दीपक ही जलाना द्वार पर तुम
ताकि दीवाली तुम्हारे गेह की सूनी न जाए।
चाहता था मैं तुम्हारे पास होता
रैन ये आलोक की रूठी न होती,
कल्पना वीरानियों के स्वप्न बुनकर
बैठ एकाकी कहीं आँसू न रोती,
कुछ न हो तो बूँद आँसू की चढ़ाना आरती पर
ताकि मेरी याद तुमको पीर में जीना सिखाए।
याद कर लेना मुझे जब गाँव भर में
स्वर्ण-दीपों का सवेरा मुस्कराए,
हर किरन विश्वास की कुछ तिलमिलाकर
भेद मेरे दर्द का शायद बताए,
कुछ न हो तो एक स्वर लहरी बजाना बाँसुरी पर
ताकि अधरों की पिपासा रैन में कुम्हला न जाए।
- बाबूलाल शर्मा 'प्रेम'
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