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घना कुहासा

घना कुहासा छा जाता है
ढकते धरती अम्बर
ठंडी-ठंडी चलें हवाएँ
सैनिक जैसी तनकर

भालू जी के बहुत मजे हैं
ओढ़ लिया है कंबल
सर्दी के दिन कैसे बीतें
ठंडा सारा जंगल

खरगोश दुबक एक झाड़ में
काँप रहा था थर-थर
ठण्ड बहुत लगती कानों को
मिले कहीं से मफलर

उतर गया आँगन में सूरज
बिछा धूप की चादर
भगा कुहासा पल भर में ही
तनिक न देखा मुड़कर

-रामेश्वर कांबोज हिमांशु

उफ़ ये सर्दी

उफ़ ये सर्दी उफ़ ये सर्दी
बहुत बनी है ये बेदर्दी
ठिठुर रहे हैं सारे प्राणी
किटकिट करती सबकी वाणी

सबके निकले स्वेटर कोट
फटती एड़ी कुछ के ओठ
लुढ़क रहा है पारा नीचे
सूरज भी जब तब ही दीखे

जलते हीटर कहीं अलाव
गज़क बिक रही ऊँचे भाव
दुबक रहे हम ओढ़ रजाई
पशु-पक्षी की आफ़त आई

क्या है ईश्वर तेरी मर्जी
उफ़ ये सर्दी उफ़ ये सर्दी

-संतोष कुमार सिंह


 

ठंडम ठा

अकड़म बकड़म ठंडम ठा
याद आ गई मां की मां
सूरज तू जल्दी से आ
धूप गुनगुनी ढोकर ला

अकड़म बकड़म ठंडम ठा
ऐसे में मत कहो नहा
सूरज तू जल्दी से आ
आ बिस्तर से उसे उठा

अकड़म बकड़म ठंडम ठा
गरमागरम जलेबी खा
सूरज तू जल्दी से आ
आ नानी की जान बचा

अकड़म बकड़म ठंडम ठा
जा सर्दी अपने घर जा

-दिविक रमेश

 

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