तासा बजा मगन के अंगना
हँसने लगा दुआर
दुलहिन उठो
उचारो पचरा
फागुन के दिन चार!
पहिरो कोई बियहुती सारी
डारो गरे हुमेल
काजर नैन
बैन रसवंती
अरकन तेल-फुलेल
कंकना कसो कलाई
बिछुवा
अंगुरिन रहो सुधार!!
ऐसे दिन न बहुरते
बहुअरि!
जिनके आदि न अंत
बरिस न बसे भवन परदेसी
बरिस न बसे बसंत
ना अब तपे कलमुहाँ ग्रीसम
ना अब रिसै कुवार!!
- डॉ. राजेंद्र मिश्र
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