फागुनी हो गई है हवा
दहक गए हैं आज पलाश
ऋतु आई है मिलन की
है अब पिया की तलाश
बसंती हो गए हैं सपने
देह हो गई है रक्ताभ
दो चंचल नयना बिसुर रहे
उनकी सोच कर अपने आप
आकर तुम मुझे रंग दो
प्रेम का गहन अंकन दो
भिगो दो आँचल चोली
पिया खेलो ऐसी होली
मन
मंदिर में तुम्हें बिठाया
अपना अक्स
तुममें समाया
खो गई मैं तुम्हारे रंग में
उतारे ये रंग उतर न पाया
काँप रही है भीगी देह
माँग रही है तुम्हारा नेह
चुटकी भर सिंदूर लगा कर
ले जाओ तुम मेरी डोली
पिया खेलो ऐसी होली
आलोक अग्रावत
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