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    रंग ठहाके

रंग ठहाके मार रहे हैं
बाँह चूम कर गोरी के

कभी छेडते हैं बालों को
कभी चूमते गालों को
भिगो भिगो जाते हैं हँसकर
सूखे हुए रूमालों को
गाल शर्म से सुर्ख हो गये
हँसती दूध कटोरी के

पिचकारी के रंग छेड़ते
गोरी पुलकित इतराए
ऊपर ना ना करे चाहती
भीतर, शहर भिगो जाए
झुके झुके से अन्दर हँसकर
नयन मटकते छोरी के

शहर समूचा सन्नाटे में
एक गली में मेला है
आँख फाड होली चकराई
शहर अजब अलबेला है
अंग अंग रसखान रच गये
मीठी नीम निबोरी के

- कृष्ण भारतीय
१ मार्च २०२४
   

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