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पवन फागुनी छेड़ती, हँसे
प्रीत की झील
बजी चंग जब देह में, बहके मन का भील
तन-मन को रंग लीजिए, कहे पीटकर ढोल
कानों में रस घोलते, फागुन के ये बोल
ऊँची भीतें फाँदता, लदे हवा की पीठ
जहाँ-तहाँ घुसपैठ है, फागुन कितना ढीठ
गुपचुप-गुपचुप मन मिले, घुला नेह का रंग
गलबहियाँ ले घूमता, फागुन संग अनंग
करामात यह मौसमी, उड़े हिया के होश
नयनों-नयनों कूदते, फागुन के खरगोश
थिरक-थिरक कर पग थके, सुन माँदल की थाप
जंगल महुआ महमहे, बन फागुन का बाप
यह सेमल के फूल-सी, वह पलाश की डाल
सभी छोरियाँ हो गईं, फागुन का रूमाल
फागुन में टेसू फबे, लदी फूल से डाल
अकड़े खड़ा कुबेर-सा, सबसे मालामाल
पीत अँगरखा भील का, बाँधे पीली पाग
ढोल बजाकर झूमता, भिलनी माँगे फाग
नव पीढ़ी अंग्रेज़-सी, सीख विदेशी ढंग
अख़बारों में ढूँढती, इस फागुन के रंग
- कुँअर उदयसिंह 'अनुज'
१ मार्च २०२३ |