अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

   
 

      
      फागुन के खरगोश

पवन फागुनी छेड़ती, हँसे प्रीत की झील
बजी चंग जब देह में, बहके मन का भील

तन-मन को रंग लीजिए, कहे पीटकर ढोल
कानों में रस घोलते, फागुन के ये बोल

ऊँची भीतें फाँदता, लदे हवा की पीठ
जहाँ-तहाँ घुसपैठ है, फागुन कितना ढीठ

गुपचुप-गुपचुप मन मिले, घुला नेह का रंग
गलबहियाँ ले घूमता, फागुन संग अनंग

करामात यह मौसमी, उड़े हिया के होश
नयनों-नयनों कूदते, फागुन के खरगोश

थिरक-थिरक कर पग थके, सुन माँदल की थाप
जंगल महुआ महमहे, बन फागुन का बाप

यह सेमल के फूल-सी, वह पलाश की डाल
सभी छोरियाँ हो गईं, फागुन का रूमाल

फागुन में टेसू फबे, लदी फूल से डाल
अकड़े खड़ा कुबेर-सा, सबसे मालामाल

पीत अँगरखा भील का, बाँधे पीली पाग
ढोल बजाकर झूमता, भिलनी माँगे फाग

नव पीढ़ी अंग्रेज़-सी, सीख विदेशी ढंग
अख़बारों में ढूँढती, इस फागुन के रंग

- कुँअर उदयसिंह 'अनुज' 
१ मार्च २०२३

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter