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फगुआ का नवगीत

कोसी के कछार पर गाती
सरसों फगुआ का नवगीत
बिछा पुआल

सागर की रेती पर लहरों
की होती घुड़दौड़
तुरही ढोल-झाल सँग गुनती
राग भैरवी-गौड़

आसमान तक गूँज रहा है
बरसों से कलकल संगीत
उड़ा रुमाल

नई फसल की चकाचौंध है
मचल रही है खेप
सजी मशीनों की दँवरी का
कट सकता है टेप

मास राशिफल में न घुसे वह
नरसों तक पचखा अवगीत
सुनो भुआल

मनमौजी हो गईं दिशाएँ
और उड़ातीं चैन
बाघागोटी खेल रही है
तरबूजों सँग रैन

आशाओं के आसमान में
होली का भी होलिकोत्सव है
परसों ही जनेव-उपवीत
मगन गुलाल

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
१ मार्च २०२०

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