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फागुन के द्वार
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हँसने लगीं कुमारी कलियाँ
मौसम की मनुहार पर
उतरी है वसन्त की डोली
फिर फागुन के द्वार पर
हँसते-हँसते हवनकुण्ड सा
जलने लगा पलाशवन
मौलसिरी लायी मंगलघट
गन्ध लुटाता चंदन वन
कोयल गाने लगी स्वागतम
आम्र कुंज बौराये हैं
भँवरे मादकता से अपने
तन-मन को भर लाये हैं
झूम रहा है महुआ
सरसों के सोलह शृंगार पर
नाच उठीं पागल इच्छाएँ
छूम छनन छूम छनन छनन
बोल उठीं मन की मिजराबें
तुम तनन तूम तनन तनन
ठनक उठीं ढोलक सी रातें
बंशी दिन के अधरों पर
सज-धजकर आ गयी चाँदनी
पायल बजी मुँडेरों पर
जाने कैसा राग, रंग, रस
छाया है संसार पर
भोर मेनका, साँझ उर्वशी
रम्भन सी गोधूली है
मुग्धा रात भटकती जैसे
कोई हिरनी भूली है
सुंदरता ने डिगा दिया है
तप के विश्वामित्र को
देख रहे हैं नैन बावरे
इस रसभीने चित्र को
बाँध नहीं पाए हैं बंधन
रहे हजारों प्यार पर
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा यायावर
१ मार्च २०२० |
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