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बहक चली फागुन में

सखि, बौराई अमवा की डार
बहक चली फागुन में
मस्त हो गई बसंतिया बयार
महक चली फागुन में

धानी-धानी धरती के अभिनव शृंगार हैं
स्वर्णिम जड़ाऊ से सरसों के हार हैं
छेड़े कोयलिया सरगम के तार
कुहुक चली फागुन में

लाल-लाल बिंदिया तो अधरा ऊ लाल हैं
कजरारे नैन, बैन मधुरस के थाल हैं
गोरी हारी चुनरिया सँवार
सरक चली फागुन में

मनवा में रात रात चाँद विष घोले है
भोर भये कागा अटरिया पे बोले है
चैन छीने पायलिया छिनार
ठुमक चली फागुन में!

- रामेश्वर प्रसाद सारस्वत
१ मार्च २०२०

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