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किसके साथ मनाएँ होली

किसके साथ मनायें होली
रामू चाचा सोच रहे हैं
इसी दिवस के लिए मरे थे?
अपना माथा नोच रहे हैं

बाँट-बाँट कर अलग हुए सब
बोलचाल भी बंद पड़ा है
सबदिन तो जी लिये किसी विध
दिवस आज का क्यों अखरा है
हाय पड़ोसी की क्या सोंचें
भाई सभी दबोच रहे हैं

भाईचारा रहा नहीं वो
भौजाई अनजानी अब तो
दीवारें अब ऊँची-ऊँची
मिल्लत हुई कहानी अब तो
अपने-अपने स्वार्थ सभी के
बचे कहाँ संकोच रहे हैं

बेटे सब परदेश, बहू क्यों
घर आयेगी, क्या करना है
होली और दिवाली में बस
बुड्ढे को कुढ़-कुढ़ मरना है
आँगन-देहरी नीप रहे खुद
दुखे कमर, जो मोच रहे हैं

गाने वाले होली को अब
नहीं बचे हैं, ना उमंग है
किसी तरह दिन काट रहे हैं
बूढ़े-बूढ़ी, ना तरंग है
नवयुवकों में संस्कृति के प्रति
सोच अरे जो ओछ रहे हैं

हुआ गाँव सुनसान भाग्य
इसका करिया है, यह विकास है
अब गाँवों से शहरों में होली
बढ़िया है, यह विकास है
दरवाजे पर बैठे चाचा
रह-रह आँखें पोछ रहे हैं

- हरिनारायण सिंह 'हरि'
१ मार्च २०२०

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