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होली में

होली में रंगों ने सबको
फि‍र भरमाया

रिश्‍तों में धुँधली कालिख को ढकती आई
अपनों की गरिमा रेखांकित करती आई
रंगों की फुहार में फूटे दुख के छाले
मन के सारे जो गुबार थे
हरती आई

होली में रंगों ने सबको
गले लगाया

जाती सरदी की ऋतु की ठंडक बाकी है
मिले गले बरसों में, लगा महक बाकी है
आँखों से जब छलक उठे पैमाने उनके
लगा समंदर में अब तलक
नमक बाकी है

होली के रंगों में फिर से
दिल भर आया

रंगों से नफ़रत को अकसर देख हारते
अक्सर हँसते लोग और शेखी बघारते
जाने किस मिट्टी का माधो है यह 'आकुल'
मल मल आँखें कभी देखता
रंग झाड़ते

होली ने रंगों का चश्मा
खूब चढ़ाया.

- गोपालकृष्ण भट्ट आकुल
१ मार्च २०२०

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