अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

   रंग खुशियों के

धरा पर रंग खुशियों के
बिखरते पर्व होली में।
सभी पर रंग बिखराते
सभी हैं पर्व होली में।

छलकता जा रहा है आज
भावों का कलश देखो।
कहीं इस पर किसी का भी
नहीं है आज वश देखो।

खिली मुस्कान ओंठो पर
शरारत भर ठिठोली में।

भरो मत रंग नफरत के
हसीं है केसरी क्यारी।
मिटा दो रक्त के धब्बे
बसाकर जन्नतें प्यारी।

छुपाकर क्यों रखें खुशियाँ
बताओ बंद झोली में।

बने मिष्ठान मनभावन
सुगंधित हो सभी के घर।
खिलाएँ एक दूजे को
बनें सबके सभी प्रियकर।

यही है भाव सतरंगी
सहज व्यवहार बोली में।

छंटे हैं धुंध के बादल
बदलता जा रहा मौसम।
उड़ी है नींद आँखों की
लबों पर प्रीत की सरगम।

बहे हर रंग की धारा
रहे उन्मुक्त टोली में।

- सुरेन्द्रपाल वैद्य
१ मार्च २०१९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter