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   फागुनी आकाश

राग रंजित ले हथेली
सुबह से ही
कसमसाता फागुनी आकाश!
एक युग से एक युग तक
क्षितिज अटकी प्यास!!

इस दिशा का गाल
कर दूँ लाल
या कि गहरी झील सी
मदमत्त आँखों पर
हवा का
बाँध दूँ रूमाल

वेदना दाबे अधर में
धुआँ भी आँखों धुमाये
हँस-हँसाता, काश!
कसमसाता फागुनी आकाश!!

रंग टेसू के
नहीं सूखे
पंखुरी तक भिगोने को
नयी साड़ी धारयित्री की
महज़ भूखे!

धूसरित आकांक्षाओं में
स्वयं ही रंग भरता
क्या समय का पाश?
कसमसाता फागुनी आकाश!

- सुभाष वसिष्ठ
१ मार्च २०१९

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