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   फागुन के घर होली

ढोल-पूर्णिमा चली खेलने
फागुन के घर होली

गली-मुहल्लों फगुहारों को
ठर्रा किया इकट्ठा
‘होली आई’ ‘होली आई’
कह-कह हँसता ठट्ठा
चली आ रही शोर मचाती
लठमारों की टोली

फूलों की है रँगी हथेली
सरसों कनखी मारे
मटर-छीमियाँ साग टूँगती
होला खड़े किनारे
है जाड़े का यह अंतिम दिन
निकली ऋतु की डोली

गुझिया-मठरी ताक रही हैं
जलजीरा की राहें
खींच रहा है पछुआ पीकर
मदिरालय की बाहें
चली हवाएँ उड़ा रही हैं
रुनुकझुनुक सँग रोली

झूम रही है मदमस्ती में
रामराज की खोली
भीग रही है चिकट चुनरिया
चिहुक रही है चोली
झूमकसाड़ी भाग रही है
ले अबीर की झोली

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
१ मार्च २०१९

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