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   अबके कैसी ?

पत्ते-पत्ते बतियाते हैं
चली फगुनहट अमराई में
अबके कैसी?

बदहवास है, झुंझलाया भी
फाग लोटता छाँवों-छाँवों
बहकी पायल, सूखा अलता
रौंद रहे मिल सपने पाँवों

टीस पीर की सुघराई में
अबके कैसी?

पथरायी आँखों में सरहद
धुआँ उड़ाता लाल-लाल जब
बदन रंग से लगे दहकता
सुन्न पड़ा बेनूर गाल तब।

खुनक भरी है पुरवाई में
अबके कैसी?

झेल हवा का उकड़ूँ बहना
काँधों लद चल पड़ी प्रतीक्षा
धुली माँग की सेनुर लेकर
कूट रही सिलवट पर इच्छा

त्रास पेट से, फगुनाई में
अबके कैसी?

- सौरभ पांडेय
१ मार्च २०१९

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