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 गा रही है फाग पुरवा

केसरी बाना पहनकर
रंग हरने आ गए
कुत्सित विचारों
का प्रदूषण।

गा रही है फाग पुरवा
राग धुँधलाए तिमिर के
टेसुओं के पाँव पूजे
नागफनियों ने सिहर के

दुश्मनी है दंग लखकर
दोस्ती के मन, नवेले
प्रीत-पुष्पों में
परागण।

मुड़ चला है रथ समय का
सौख्य के लेकर उजाले
चित हुए सब मात खाकर
लोभ-लिपटे मेघ काले

स्वर्ण-किरणें बाँट दिनकर-
ने दिया फहरा विजय-ध्वज,
कालिमा को काट
क्षण-क्षण।

साल भर आतंक होते
पुष्ट जो जग को सताकर
होलिका उनको जलाती
गोद में अपनी बिठाकर

गर्व से फिर भंग पीकर
पर्व पुण्यों का मनाता
जोश से हर बार
जन-गण।

- कल्पना रामानी
१ मार्च २०१९

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