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रंगों की बयार

हुए बदरंग अबकी बार
सारे रंग होली के

हों गुझिया या नमक पारे सभी हैं शोक के मारे
हवा है फागुनी लेकिन नयन हैं अश्रु से खारे
नज़र आते लहू जैसे
सुमोहक रंग रोली के

किसी को टीस देती है पुरानी याद होली की
किसी को हूक उठती है स्मरण से उस ठिठोली की
सखा लौटा नहीं घर
मौन-स्वर हुड़दंग टोली के

पिता-माता निहारें द्वार इक अचरज की आशा में
मगर आहट बदल जाती सघन होती निराशा में
किसी के कान में गुंजित हैं
स्वर प्रियतम की बोली के

- अमिताभ त्रिपाठी
१ मार्च २०१९
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