अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

दुविधा में है गाँव

दुविधा में है गाँव समूचा
चढ़ा हुआ फागुन है
होली क्या खेले, देवर की
भौजी से अनबन है

छोटे बड़े अलग हैं
बुढ़िया–बूढ़े हुये अलग
फागुन में भी बाबा देवर
नहीं रहे हैं लग

घर जैसे उजड़ा–उजड़ा है
महका–महका वन है

सदियों से मौसम से थे
अपने अच्छे संबंध
बात हुई क्या सबकी सबसे
बोलचाल है बंद?

चौरे पर है शान्ति, दुखी
पीपल बाबा का मन है

चलो नेह के धागे जोड़ें
पुन: पिरोयें प्यार
रंग खिले फिर, फाग छिड़े फिर
झूम उठे त्यौहार

गालों पर गुलाल का आखिर
अपना आकर्षण है

– रविशंकर मिश्र “रवि”
१ मार्च २०१७

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter