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जग रहा है फाग मन
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जग रहा है फाग मन में
आस का अनुप्रास बन के
मापनी ने पास
स्वप्नों को बुलाया
रंग खिलती भोर से
हँस कर मँगाया
ढोल अंदर मुस्कुरा
तैयार बैठे
आज बजने का समय
जो लौट आया
प्रियतमा लगने लगी हैं
धड़कनें उल्लास बन के
जब गुलालों ने
हवा की गोद पा ली
छंद कोई आज
रह सकता न खाली
ये पुए, गुझिया
सुवासित तुष्टियों से
तृप्तियाँ साक्षात
लायीं मुग्ध थाली
पास ही मधुमास बैठा
प्रीत का विश्वास बन के
बोलता आँगन, मुझे
मुक्तक रचाने दो
हठ करे मस्ती, मुझे
खुद में समाने दो
दौड़ गलबहियाँ करें
गलियाँ कपाटों से
हँस पड़ी छत, जो
जिसे करना, कराने दो
जम चुकी इच्छा पिघलती
साँस दौड़ी प्यास बन के
- कुमार गौरव अजीतेन्दु
१ मार्च २०१७ |
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