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रंगों की भी कैसी दुनिया

नीला हरा गुलाबी जिसके
छलक छलक हिस्से में आता
अपनी चिठ्ठी उसे बैंजनी
या धूसर पल में पकड़ाता

फिर भी रंगों से पहचाने
जाते होरी धनिया झुनिया

इन्द्रधनुष भी खिंच जाते हैं
कभी कभी सबकी आँखों में
नीला आसमान भी भरता
कभी कभी सबकी पाँखों में

गुब्बारों में सिमटे दुनिया
जब हम होते मुन्ना मुनिया

जब तक जीवन, रंग रहेंगे
काले पीले धूसर धानी
पोरे रंगहीन हो पाते
कब ज्ञानी ध्यानी पानी

रंग अंग सँग चिपटे रहते
गुनिया हो या हो निरगुनिया

- वेदप्रकाश शर्मा वेद
१५ मार्च २०१६

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