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वही पहले सा अपरिचय

जी लिया हमने
बसंती भोर का हर एक पहलू
रह गया रंगो से लेकिन
वही पहले सा अपरिचय।

बहुत पीछे झाँकने पर
एक पल को एक चेहरा
उभरकर फिर चिटक जाता
सड़क जी उठती चहकती
तर्जनी छूकर किनारों पर
पड़ा दिन सर उठाता

एक तय दूरी बनाकर
पाँव पाकर खड़े विस्मय।

कूटभाषा के अपढ़
संकेत सूखे, घास पर बैठी
ठगी पतझड़ी शामें
राहजन रातें कटी चिट्ठी
मदद के नाम पर
आश्वस्तियाँ दे गईं नामें

और ज्यादा बैठता दिल
बूझकर प्रत्येक आशय।

खिड़कियों पर तनी जाली
बन्द दरवाजे उड़ेले
कहाँ से दो बूँद फागुन
खोखली शुभकामनाएँ
हाथ हिलते रह गये
'बस' चढ़ी असगुन

रास्ते भर साथ चलते रहे
भय-संशय-अनिश्चय।

- शुभम् श्रीवास्तव ओम
१५ मार्च २०१६

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