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फागुनी दोहे |
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चहक उठी चौपाल, छत, आँगन,
सहन, मुँडेर
फागुन का खत दे गए, खट्टे-मीठे बेर
साँस-साँस मे घुल गई, एक सुरमयी-गंध
आँखों से होने लगे, आँखों के अनुबंध
कलियाँ लहराने लगीं, यौवन का रूमाल
भौरों के ईमान पर, उठने लगे सवाल
मन की सब गाँठें खुलीं, टूटे सब तटबंध
पोर-पोर पर लिख गया, फागुन नेह-निबंध
घूँघट ने संकेत से, पढ़ी प्रीत की रीत
अधरों की देहरी चढ़े, मधुर-मिलन के गीत
आँखों भरी शरारतें, रंगों भीगा गात
दर्पन दीवाना हुआ, पाकर यह सौगात
अंग-अंग मे गुदगुदी, मौसम गया उकेर
सह न सका खामोशियाँ, घूँघट ज़्यादा देर
लिए कुँवारी खुशबुयें, फागुन है मदहोश
मन पर बुनते मस्तियाँ, यादों के खरगोश
काजल आँजे आँख में, रचे महावर पाँव
याद किसी की आ गई, मेरे दिल के गाँव
गया चिकोटी काट कर, रंगों-भीगा राग
रही दहकती देर तक, संदर्भों की आग
- जय चक्रवर्ती
१५ मार्च २०१६ |
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