|
|
ऋतु के भीने छंद |
|
साँसों में ऐसे घुले, ऋतु के
भीने छंद
काम-विमोहित हो गए, सारे अंतर्द्वंद।
सकल सृष्टि रसमग्न है, जग सारा रंगीन
विधि की है यह योजना, कोई न हो गमगीन
मेरे अंगों में भरो, माँ होली उल्लास
सब पर सौरभ वार दूँ, सूर, कबिर, रैदास
छत पर ढोलक-थाप है, गलियों बजे मृदंग
रति के वश में अब नहीं, राँझा हुआ अनंग
इस आभासी लोक में, साँचा है यह गीत
फागुन ने जिसको रँगा, राधा है वह प्रीत
किलकारी की गूँज में, रस-रंगों की धूम
आ तुझसे पहले सखी, लूँ पिचकारी चूम
गोकुल भी सुनसान है, वृन्दावन भी मौन
रंगों के रस-राग को, गुन पाएगा कौन
- अश्विनी कुमार विष्णु
१५ मार्च २०१६ |
|
|
|