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दबे पाँव फागुन

दबे पाँव फागुन आ धमका।

पैर रजाई धकियाते हैं
दिन की धूप चुभी जाती है
गदराई गेहूँ की बाली
मारे शर्म झुकी जाती है
छुट्टी से लौटा जो सूरज-
अबकी जरा जोर से चमका।

भौजी की गाली खुश करती
गाल लाल होते झिड़की पर
दिन भर में एकाध मर्तबा
तुम भी आ जाती खिड़की पर
हमरी होली तबै मनैगी
अपनै रंग रंगूँ जब तुमका।

घर-घर जा चुगली बतियाती
कोयल बौराये आमों की
गुपचुप बातें शुरू हो गयी
सारे हुल्लड़-हंगामों की
भंग घोंटने लगे भँगेड़ी
गूँजा नारा हर-हर बम का।

- शुभम श्रीवास्तव ओम
२ मार्च २०१५

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