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कहना मेरे गाँव से

ऊब गया है तेरा बाबू
ठण्डी ए सी छाँव से
सूरज यह सँदेशा अबकी
कहना मेरे गाँव से

सोन चिरैया के कलरव को
ढूँढ़े रोज सवेरे
किन्तु यहाँ सब सोते रहते
किसको इकला टेरे
अवसादित अंतस उलझा फिर
खलिहानों के दाँव से

महानगर में लोग तने हैं
कौन किसी की सोचे
अपनी अपनी के चक्कर में
सबके सबको नोचे
हमको तो बौरायी बगिया
कोयल खींचे ठाँव से

सुबह शाम सारे रंगों को
अंबर में बिखराना
गोरे गालों पर गोरी के
चुपके से निखराना
पवन उड़ा रंग ले जाना तुम
लागे भौजी पाँव से

सूरज यह सँदेशा अबकी
कहना मेरे गाँव से

- श्रीकांत मिश्र कांत
२ मार्च २०१५

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