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होली का त्यौहार |
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जब से आई द्वार पर, फागुन
वाली धूप
कंगन खनकें हाथ में, घूँघट भीतर रूप।
रँगी देह को देखकर, ऐसा हुआ लगाव
धूल-धूसरित हो गए, सब संन्यासी भाव।
रिश्ते-नाते फाग में, उमर गई सब भूल
तन भाभी-सा हो गया, देवर टेसू फूल।
इन्धनुष सी हो गई, घूँघट वाली हीर
राँझे ने ऐसी लिखी, रंगों से तकदीर।
खिली कमलिनी देखकर, उड़े असंख्य अलिन्द
लिखें फागुनी गूँज से, मधुर गीतगोविन्द।
निष्ठुर ने ऐसा मला, तन पर रंग अबीर
बंगाली जादू बनी, उसकी हर तासीर।
बन ठन आई द्वार जब, फागुन की बारात
जहाँगीर-सा दिन हुआ, नूरजहाँ-सी रात।
परदेशी के विरह में, तन मन हुआ उदास
मेघदूत लिखने लगा, मौसम कालीदास।
फागुन आया गाँव में, मची गुलाबी लूट
एक अभागिन यक्षिणी, पीती विष का घूँट।
ऊँची बोली में बिकी, हर चूनर रंगीन
बिकी न उजली सादगी, हाट खड़ी गमगीन।
बिरहन ताके देहरी, लिये हथेली प्रान
फागुन हस्ताक्षर करे, तब महके मुस्कान।
छलके सबके नयन में, रंग फागुनी भोर
रंगकलश छलका नहीं, दो नयनों के छोर।
रचे पुरुरवा-उर्वशी, जो मादक आख्यान
फागुन की आहट बिना लगते हैं निष्प्रान।
सागर कितनी दूर है, करती नदी विलाप
किस दुर्वासा का लगा, इस फागुन को शाप।
प्रिय दर्शन बिन फाग का, कैसा कायाकल्प
चन्दन का होता नहीं, कोई अन्य विकल्प।
चतुर खिलाड़ी ने चली, ऐसी टेढ़ी चाल
चढ़े डूबती नाव पर, रंग, अबीर, गुलाल।
माथे से ऐसे लगे फागुन वाले छन्द
राग रागिनी हो गए, सारे अन्तर्द्वन्द्व
- रमेश गौतम
२ मार्च २०१५ |
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