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सुघर मनोहर हास

यमुना तट गुंजित हुये, रचते मोहन रास
राधा पग घुँघरू बजे, सुघर मनोहर हास

भर पिचकारी रंग की, सखा सम्हाले हाथ
सौरभ-सौरभ सा झरे, कुसमित है हर पाथ

पुलकन अंगों में भरी, वासंती मनुहार
चितवन चंचल सी हुई, भँवरे की गुंजार

स्वर्णप्रभा सी रश्मियाँ, वन टेसू लहराय
मादकता छाई गगन, बसुधा मन बलखाय

बैरागी मधुकर हुये, डोलें वन चहुं ओर
लोलुपता मन की लिए, करते फिरते शोर

गोद भराई कर गई, ऋतु वसंत चितचोर
फगुनाई ले आ गई, रंगों वाली भोर

पिकवैनी स्वर मधुर में, गाती मंगल गीत
डाली-डाली कूकती, पंचम स्वर की रीत

पनहारी पनघट चली, भाती उसको भोर
कर लालन कटि पर घड़ा, पायल करती शोर

मलयागिरि से बह चली, शीतल मंद सुगंध
लहर-लहर कचनार मन, खूब लुटाती गंध

अमराई फूला हृदय, स्वर्ण प्रभा सी ओज
महके चन्दन साँस में, हर मन की ये खोज

- कल्पना मिश्रा वाजपेयी
२ मार्च २०१५

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