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फगुनाए दिन

देहरी छूकर विदा हुए थे
सकुशल लौटे फगुनाए दिन

ठीक-ठाक थे
यादें थीं पर काम बहुत था
घंटों, पहरों
चैन उड़ाती वही व्यस्तता

थोड़ी देर थमे बगिया में
फिर अँगना में सुस्ताए दिन

सरस उठीं
बूढ़े होठों में नई दुआएँ
चहक जगीं
फूलों-पातों में छिपी ऋचाएँ

गिनवा दीं हों सूनी घड़ियाँ
यों कँगनों ने खनकाए दिन

हँसी-ख़ुशी
की बातें बढ़िया खाना-पीना
संगत से ही
सिखला देते जीवन जीना

दृग भर आते हैं जब जाते
हैं आकर ये मनभाए दिन

- अश्विनी कुमार विष्णु
२ मार्च २०१५

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