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होली है!!


वसंत का इंतजार


दीवार पर बेवजह टंगे कैलेंडर ने
बता दिया समय रहते
कि लो आ पहुँचा है वसंत
इस बार भी
तमाम विलोम परिस्थितियों के बावजूद
जैसे फाँसी के तख्ते पर खड़ा आदमी
ठहाका लगा कर हँस पड़े
हाथ में रस्सी थामे जल्लाद के
मुँह से बहती लार पर
भिनकती मक्खियों को देख कर

वसंत को गुमशुदा हुए अरसा हुआ
उसके आने की अफवाह बरस दर बरस चली आती है
जर्द फूलों, पंख फड़फड़ाती बेरंग तितलियों
अविश्वास के हरेपन से लिपटी वनस्पति
और उदासी से लबरेज खुशबुओं के सहारे
जैसे आ जाते हैं तमाम उत्सव
अपने सदियों से तय समय पर
निराशा के ढोल मजीरे पीटते

वसंत की उस वासन्तिक आभा का
इस सदी को बेसब्री से इन्तजार है
जो बिना किसी तामझाम के
उतर आती थी मन की
अतल गहराइयों में चुपचाप
जैसे जंगल में मोर के नाचते ही
वहाँ के सन्नाटे में बज उठे
कोई ऐसी सिम्फनी
जिसे सुन संगीत के प्रामाणिक ग्रंथों के पन्ने
उसे दर्ज करने के लिए बेचैन हो जाएँ

वसंत अब जब भी आएगा
तब उसके आने की पूर्व सूचना
किसी को नहीं होने वाली
वह आएगा इतिहास प्रसिद्ध
रंगों की शिनाख्त को धता बताता
पारंपरिक उपादानों को मुहँ चिढ़ाता
जैसे कभी मिथकीय युद्ध से लौटा था एक सम्राट
अपने अहंकार को तिरोहित कर
जिंदगी के नए मुहावरे के साथ

आओ प्रतीक्षा करें उस वसंत की
जिसके आने के बाद बदल जायेंगे
समस्त शब्दकोशों में मौजूद
सम्पूर्ण दुनिया के मायने ..

-निर्मल गुप्त
१७ मार्च २०१४

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