(१)
कहीं हँसे फूल कहीं कूप कहीं कूल कहीं--
केलि की किलोल में किलक रही कामिनी
कहीं मधुगंध कहीं उड़े मकरंद कहीं--
रस की फुहार-सी छलक रही कामिनी
जितने भी रंग हैं अनंग सरसाए हुए
सब की तरंग में झलक रही कामिनी;
रोम-रोम पोर-पोर भीनी झकझोर बनी
महुए की डाल-सी लचक रही कामिनी !
(२)
बसा मन यही डर नहीं छोड़ रही घर
गालों पे गुलाल कहीं कोई नहीं मल दे
जोरा-जोरी करे अनछुए अंग छेड़े-छुए
देह को मरोड़ तोड़ हाथ झाड़ चल दे
कैसी होली कैसा फाग कैसे रंग कैसा राग
ऐसे कैसे क्वाँरी लाज धूल में मसल दे ?
ऐसी सुकुमारियों का रूप ऋतुराज तेरे--
रंगों से भी प्यारा मत उनको खलल दे
- अश्विनी कुमार विष्णु
गात सिहराय गया, शिशिर कँपाय
गया।
जाते जाते चला सौंप, ऋतु आज फागुनी।।
मान अंत शिशिर का, उदित बसंत हुआ।
आते ही बसंत कंत, मन हुआ फागुनी।।
जग पहचाना लगे, कोई न बेगाना लगे।
संग ले अनंग जब, बही बयार फागुनी।।
गोरियों के प्रेम पगे, बैन से ही रीझें मीत।
जग है निहाल सत्य, गीत सुन फागुनी।।
-सत्यनारायण सिंह
इत कूँ बसन्त बीतौ, उत कूँ बौरायौ
कन्त
सन्त भूलौ सन्तई कूँ मन्तर पढ़ौ भारी
पाय कें इकन्त मोसों बोलौ रति-कन्त कीट
खूब है गढ़न्त तेरे अंगन की हो प्यारी
तदनन्तर ह्वै गयौ गुणवन्त – रति वन्त
करि कें अनन्त यत्न बावरी कर डारी
साँची ही सुनी है बीर महिमा महन्तन की
साल भर ब्रह्मचारी, फागुन में संसारी
-नवीन चतुर्वेदी
२५ मार्च २०१३