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होली है

 

फागुन के दिन चार

चलो सहेली बाग में फागुन के दिन चार
ऋतु बसंत की आ गई, करके नया सिंगार।
करके नया सिंगार, केसरी आँचल ओढा,
लाए पुष्प गुलाल, ढाक भी रंग कटोरा।
पर्व मनाया साथ, सभी ने होली खेली,
फागुन के दिन चार, बाग में चलो सहेली।

आई होली झूमकर, चढ़ा रंग का रोग,
हर होटल हर माल पर, छाए छप्पन भोग।
छाए छप्पन भोग, घरों में कौन पकाए,
निकल पड़े हैं संग, सभी सड़कों पर आए।
पकवानों में पकी, भंग की ऐसी गोली,
हाल हुए बेहाल, झूमकर आई होली।

दिग-दिगंत में उड़ रहा, खूब अबीर गुलाल,
रंग मेघ बरसा गया , धरा हो गई लाल।
धरा हो गई लाल, उमड़ आए नर-नारी,
धूमधाम से गेर, चल पड़ी ले पिचकारी।
पड़ी ढ़ोल पर थाप, गूँज फैली अनंत में,
खूब अबीर गुलाल, उड़ रहा दिग-दिगंत में।

होली ऐसी खेलिये, हो आनंद अभंग,
सद्भावों के रंग में, घुले प्रेम की भंग।
घुले प्रेम की भंग, भेद का भूत भगाएँ,
ऐसे मलें गुलाल, शत्रु भी मित्र कहाएँ।
रखकर होश हवास, कीजिये हँसी ठिठोली,
हो आनंद अभंग, खेलिये ऐसी होली।

कथा पुरातन काल की, हमें दिलाए याद,
जली आग में होलिका, बचा भक्त प्रहलाद।
बचा भक्त प्रहलाद, शक्ति, भक्ति से हारी,
यही पर्व का सार, जानती दुनिया सारी।
भरें आप भी स्वस्थ, रंग जीवन में नूतन,
सिखलाती यह बात, आज भी कथा पुरातन।

-कल्पना रामानी 
५ मार्च २०१२

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