होली है!!

 

फागुन की चिट्ठियाँ

छुअनें पल्लव हो गईं, अब फागुन के देश
देह बाँचने लग गई, मधुवन के संदेश

कोयल बोली बावले, क्यों हो रहा उदास
फिर फागुन की चिठ्ठियाँ, लाई तेरे पास

चाह-राधिका-सा सजी, रुप हुआ घनश्याम
फागुन में होने लगा, मन वृंदावन-धाम

ज्ञानी ध्यानी संयमी, जोगी जती प्रवीन
फागुन के दरबार में सब कौड़ के तीन

आली! वृंदावन चलें, जहाँ बसें रसराज
पीछे-पीछे आएगा, बौराया ऋतुराज

अंजुरी-अंजुरी में कमल, हवा-हवा में गंध
आँख-आँख गढ़ने लगी, विद्यापति के छंद

यह उन्मादक चाँदनी, यह मलया का राज
कौन स्वकीया-परकीया, पोथी पलटें आज

ज्ञान-ध्यान संयम भला, कैसे रहें स्वतंत्र
अब फागुन पढ़ने लगा, सम्मोहन के मंत्र

तन की सिहरन भागती, घनी अलक की छाँव
मन कहता चल वावरे, भुजपाशों के गाँव

ढ़ोलाक्यों आया नहीं, भीगीं दृग की कोर
अपलक मारु देखती, पगडंडी की ओर

डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'
१२ मार्च २०१२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter