होली है!!
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रंगों का
इतिहास |
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बदल गई घर-घाट की, देखो तो
बू-बास।
बाँच रही हैं डालियाँ, रंगों का इतिहास।
उमगे रँग आकाश में, धरती हुई गुलाल।
उषा सुन्दरी घाट पर, बैठी खोले बाल।
हुआ बावरा वक्त यह, सुन चैती के बोल।
पहली-पहली छुवन के, भेद रही रितु खोल।
बीते बर्फीले समय, हवा गा रही फाग।
देवा एक अनंग है- रहा देह में जाग।
पर्व हुआ दिन, किन्तु, है, फिर भी वही सवाल।
'होरी के घर' क्यों भला, अब भी वही अकाल।
कुमार रवीन्द्र
१२ मार्च २०१२ |
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