होली है!!
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होली है
होली |
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नाभि-गन्ध छूटी हिरणों की
सुरभि-लुब्ध उन्मत्त भ्रमर-दल
पीत-श्याम वर्णों की हलचल
लगे चहकने नवगीतों के
प्रिति-मुग्ध खग-शावक रोमिल
नृत्य-मग्न हैं तरु तरुणों-से
पहन माल सुमनों, पर्णों की
मदिर राग गिरि, कान्तारों में
रहे गूँज मिल जलधारों में
साँस-साँस को छन्द बनाया
आम, चीड़ या कचनारों ने
शैल-शृंग सब स्वर-गुँजित हैं
छिड़ी रागिनी लो झरनों की
धूप फागुनी आ टीले पर
अलस ऊँघती झपकी लेकर
उतर गगन से आई है जो
खोल पाल से चमकीले पर
अतल ताल तल-दर्पण से
हँसी एक कविता किरणों की
डॉ. राजेन्द्र गौतम
१४ मार्च २०११ |
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