अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

होली है!!

 

लागी अबीर गुलाल

(एक)

लागी अबीर गुलाल जो लाल तो भाल कै श्री कछु औरहिं जागी।
जागी जो अ र र कबीर की बानी गुमानहिं मान सबै जन त्यागी।
त्यागि के आज मलाल-कुचाल निहाल भए रस प्रेमहिं पागी।
पागी सनेह-सुधा संग मीतहिं बैरिहुँ सों बढ़ि अंकहिं लागी।


(दो)

रंग कुरंग भयो गुंझिया के जो दूध व खोया ने दै दियो गोली।
तेल व आलू के झापड़ खाइ के पापड़ की भई सूरत भोली।
हाल बेहाल है काले में दाल है यार हलाल किये घटतोली।
कोढ़ में खाज बनी है चिढ़ावति सौतन सों चली आवति होली।


(तीन)

भायन मा हौं बड़ा सबसे मोरी भावज है न कोऊ मुँहबोली।
साली जो माँगत रंग खेलाई कै है महँगा लहँगा अरु चोली।
रंग के नाम करैं घरवालिहुँ जी खिसियाय के टाल मटोली।
यार रंगे हैं सियार की भाँति मैं खेलूँ भला केहिके संग होली।


(चार)

यार मिलें दिलदार तो खेलना भाता है रंग-गुलाल की होली।
गोरी मिले ब्रज ग्वालिन जैसी तो खेलिए लट्ठ व ढाल की होली।
भंग का रंग जमे तो जमाइये बाद में मीठे के थाल की होली।
फीका है फागुन सारा का सारा जो खेली नहीं ससुराल की होली।

- ओमप्रकाश तिवारी
१४ मार्च २०११

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter