(एक)
लागी अबीर गुलाल जो लाल तो भाल कै श्री कछु औरहिं
जागी।
जागी जो अ र र कबीर की बानी गुमानहिं मान सबै जन त्यागी।
त्यागि के आज मलाल-कुचाल निहाल भए रस प्रेमहिं पागी।
पागी सनेह-सुधा संग मीतहिं बैरिहुँ सों बढ़ि अंकहिं लागी।
(दो)
रंग कुरंग भयो गुंझिया के जो दूध व खोया ने दै दियो गोली।
तेल व आलू के झापड़ खाइ के पापड़ की भई सूरत भोली।
हाल बेहाल है काले में दाल है यार हलाल किये घटतोली।
कोढ़ में खाज बनी है चिढ़ावति सौतन सों चली आवति होली।
(तीन)
भायन मा हौं बड़ा सबसे मोरी भावज है न कोऊ मुँहबोली।
साली जो माँगत रंग खेलाई कै है महँगा लहँगा अरु चोली।
रंग के नाम करैं घरवालिहुँ जी खिसियाय के टाल मटोली।
यार रंगे हैं सियार की भाँति मैं खेलूँ भला केहिके संग होली।
(चार)
यार मिलें दिलदार तो खेलना भाता है रंग-गुलाल की होली।
गोरी मिले ब्रज ग्वालिन जैसी तो खेलिए लट्ठ व ढाल की होली।
भंग का रंग जमे तो जमाइये बाद में मीठे के थाल की होली।
फीका है फागुन सारा का सारा जो खेली नहीं ससुराल की होली।
- ओमप्रकाश तिवारी
१४ मार्च २०११
|