वही जो कुछ सुन रहा हूँ कोकिलों में
वही जो कुछ हो रहा तय कोपलों में
वही जो कुछ ढूँढते हम सब दिलों में
वही जो कुछ बीत जाता है पलों में
बोल दो यदि...
कीच से तन मन सरोवर के ढँके
हैं
प्यार पर कुछ बेतुके पहले लगे हैं
गाँठ जो प्रत्यक्ष दिखलाई न देती--
किन्तु ह को चाह भर खुलने न देती
खोल दो यदि... बहुत संभव चुप इन्हीं
अमराइयों में
गान आ जाए
अवांछित, डरी सी परछाइयों में
जान आ जाए
बहुत संभव है इसी उन्माद में
वह दीख जाए
जिसे हम तुम चाह कर भी
कह न पाए वायु के रंगीन आँचल में
भरी अँगड़ाइयाँ बेचैन फूलों की
सतातीं---
तुम्हीं बढ़कर
एक प्याला धूप छलका दो हृदय में---
कि नीचे बेझिझक हर दृश्य इन मदहोश आँखों में
तुम्हारा स्पर्श मन में सिमट आए
इस तरह
ज्यों एक मीठी धूप में
कोई बहुत ही शोख चेहरा खिलखिलाकर
सैकड़ों सूरजमुखी-सा
दृष्टि की हर वासना से लिपट जाए !
२१ मार्च २०११ |