मातृभाषा के प्रति


हिंदी की ग़ज़ल

उर्दू की नर्म शाख पर रूद्राक्ष का फल है
सुंदर को शिव बना रही हिंदी की ग़ज़ल है

इक शापग्रस्त प्यार में खोई शकुंतला
दुष्यंत को बुला रही हिंदी की ग़ज़ल है

ग़ालिब के रंगे शेर में खैयाम के घर में
गंगाजली उठा रही हिंदी की ग़ज़ल है

फ़ारस की बेटियाँ हैं अजंता की गोद में
सहरा में गुल खिला रही हिंदी की ग़ज़ल है

आँखों में जाम, बाहों में फुटपाथ बटोरे
मिट्टी का सर उठा रही हिंदी की ग़ज़ल है

जिस रहगुज़र पर मील के पत्थर नहीं गड़े
उन पर नज़र टिका रही हिंदी की ग़ज़ल है

गिनने लगी है उँगलियों पे दुश्मनों के नाम
अपनों को आज़मा रही हिंदी की ग़ज़ल है

सुख, दुख, तलाश, उलझनें, संघर्ष की पीड़ा
सबको गले लगा रही हिंदी की ग़ज़ल है

'पंकज' ने तो सौ बार कहा दूर ही रहना
होठों पे फिर भी आ रही हिंदी की ग़ज़ल है

-गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज'
16 सितंबर 2005

 

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