हिंदी रस की खान


कविता गीत कहानियाँ, विस्तृत है साहित्य।
भाव रसों से है सजा, हिन्दी का लालित्य।
हिन्दी का लालित्य, बहे सागर के जैसा।
अनुपम निधि भंडार, नहीं कोई है ऐसा।
लेखक या कवि आज, बहा रहे ऐसी सरिता।
देती मन आनंद, कहानी हो या कविता।।

हिंदी रस की खान है, अनुपम इसका ओज।
मिला हमें वरदान ये,पढ़ते हैं हम रोज।
पढ़ते हैं हम रोज, गीत ये मन को भाते।
कविताओं के रूप, बहुत मन को हर्षाते।
भाषा है ये खूब, लगे माथे की बिंदी।
फलती जाये नित्य, बढ़े आगे ही हिंदी।

कितना सुन्दर है सजा, भाषा का संसार।
मिला हमें वरदान ये, करते हम आभार।
करते हम आभार, मधुर रस की ये बोली।
जोड़े मन के तार, सभी की ये तो हो ली।
फैलाती बस प्रेम, पास लाती है इतना।
महक उठा संसार, रूप सुन्दर है कितना।

वाणी से संयम हटा, चुभती बन कर शूल।
अगर सजे ये भाव से, बन जाती है फूल।
बन जाती है फूल, हृदय को ये महकाती ।
घोले खूब मिठास, सभी के ये मनभाती।
मिट जाये सब बैर, समझ गर रख ले प्राणी।
जीवन में हो धैर्य, और संयम में वाणी।

- वैशाली चतुर्वेदी   
१ सितंबर २०१५

 

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