अपनी भाषा


कथा, कहानी, लोरियाँ, थपकी, लाड़, दुलार।
अपनी भाषा के सिवा, और कहाँ ये प्यार।

निज भाषा, निज देश पर, रहा जिन्हें अभिमान।
गाये हैं हर वक़्त ने, उनके ही जायगान

अँग्रेजी पर गर्व क्यों, क्यों हिन्दी पर शर्म!
सोचो इसके मायने, सोचो इसका मर्म!

कोई इसके साथ है, कोई उसके साथ।
भाषाओं की भीड़ में, हिन्दी खड़ी अनाथ।

हिन्दी की अँगुली पकड़, जो पहुँचे दरबार।
हिन्दी के ‘पर’ नोचते, वे बन कर सरकार।

सम्मेलन, संगोष्ठियाँ, पुरस्कार, पदनाम।
हिन्दी के हिस्से यही, धोखे, दर्द तमाम।

हिन्दी से जिनको मिला, पद पैसा, सम्मान।
हिन्दी उनके वास्ते, मस्ती का समान।

बचा रहे इस देह में, स्वाभिमान का अंश।
रखो बचाकर इसलिए, निज भाषा का वंश।

- जय चक्रवर्ती    
१ सितंबर २०१५

 

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