बदल सके जो

बदल सके जो कलम चलाकर
भाषा की तकदीर
हिन्दी फिर से ढूँढ़ रही है
तुलसी, सूर, कबीर

नयी उक्तियाँ, नये शब्द
नव संवादों की माला
जनमानस को सौंप सके जो
जीवन–मधु का प्याला
शब्द–क्रान्ति को स्वर दे
तोड़े जड़ता की जंजीर

नकल छोड़ जो करे प्रवाहित
मौलिक चिन्तन–धारा
नये शोध की हवा बहाये
पुलक उठे जग सारा
मिले विश्व–गुरु को फिर से
अपनी खोयी जागीर

ज्ञान और विज्ञान खिलें
महकें हिन्दी भाषा में
आगे बढ़कर हम भविष्य की
बागडोर को थामें
कमर कसें, क्यों डरें
भले ही स्थिति है गम्भीर

रविशंकर मिश्र रवि
८ सितंबर २०१४

 

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