सच पूछो तो यूँ लगती है हिंदी हिंदुस्तान में,
ज्यों कागज़ के फूल खिले हों,
शीशे के गुलदान में
हिन्दी जिसे सँवारा तुलसी ने अपनी चौपाई से,
जिसे सूर ने अपनाया, जो निखरी मीराबाई से।
ध्वज वाहक रहीम थे, जिसको आराधक रसखान मिले।
भारतेन्दु, बापू ने चाहा था जिसको सम्मान मिले।
सिमट गयी है आज वही बस
परिचर्चा-व्याख्यान में।
ज्यों कागज़ के फूल खिले हों
शीशे के गुलदान में
हिन्दी का ध्वज यदि सचमुच फहराना चाहो अम्बर में।
प्रतिदिन हिन्दी दिवस मानना होगा न कि सितम्बर में।
अंग्रेजी स्कूलों का भी "क्रेज़" ख़त्म करना होगा।
मन में छुपा हुआ है जो "अंग्रेज" ख़त्म करना होगा।
ये कुछ बातें रखनी होंगी
हम सब को संज्ञान में।
प्राण प्रतिष्ठा हिन्दी की तब
होगी हिंदुस्तान में।