दें नए विस्तार

अब जरा अपने क्षितिज को
दें नए विस्तार
भाषा से सृजन से

सिर्फ शब्दों से नहीं
व्यवहार से भी
अस्मिता के भाल की
बिन्दी बचाएँ
अब प्रदूषण के
प्रहारों से घिरी जो
शाश्वत मधुमय प्रखर
हिंदी बचाएँ

मित्र भाषा से मिलें जो शब्द
स्वागत कर मिलें
अब मुक्त मन से

हम शपथ-संकल्प की
शब्दावली से दूर हटकर
अब समन्वय की
नई धारा बहाएँ
हर तरह की हीनता को
त्यागकर अब
राष्ट्रभाषा
मात-हिंदी को सजाएँ

अब सहोदर बोलियों को
मान देकर, जोड़ दें
सामान्य-जन से

- जगदीश पंकज
८ सितंबर २०१४

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter